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मानस-जप

मानस-जप

मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-साधन और सुरत-शब्द-योग द्वारा सर्वेश्वर की भक्ति करके अंधकार, प्रकाश और शब्द के प्राकृतिक तीनों परदों से पार जाना और सर्वेश्वर से एकता का ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पा लेने का मनुष्य मात्र अधिकारी है।
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पहले से ही कोई निर्गुण उपासना नहीं करता। पहले स्थूल सगुण रूप उपासना, फि़र सूक्ष्म सगुण रूप उपासना, फि़र सूक्ष्म सगुण अरूप उपासना और अंत में निर्गुण निरकार उपासना। मानस जप और मानस ध्यान स्थूल सगुण रूप उपासना है, विन्दु ध्यान और ज्योति धयान, सूक्ष्म सगुण रूप उपासना है, अनहद नाद का ध्यान रूप रहित होने पर भी सगुण उपासना है और सारशब्द का ध्यान निर्गुण निराकार उपासना है। ( प्रवचन अंश : राजविद्या राजगुह्य का तात्पर्य )
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स्थूल सगुण-साकार की उपासना आरम्भ में लोग करते हैं। ईश्वर का कोई राम में, कोई कृष्ण में, कोई शिव में, कोई शक्ति में मानते हैं। इस तरह कई ईश्वर हो जाते हैं। ईश्वर तो एक ही होना चाहिए। आपस में लोग बहस करते हैं और साम्प्रदायिकता का भाव फ़ैलाते हैं। ईश्वर एक हैं। उनके कई रूप हैं। जैसे एक ही आकाश के घटाकाश, मठाकाश आदि रूप हैं। आकाश एक ही रहता है, चाहे घटाकाश, मठाकाश कितना भी आप कहें। उसी तरह ईश्वर एक ही है। उनके अनेक नाम-रूप हैं। किसी एक रूप से उपासना का आरम्भ किया जाता है। कोई समझे कि स्थूल उपासना से ही उपासना समाप्त हो जाएगी तो वह कम जानता है, इतना कहने में शक नहीं। केवल स्थूल साकार सगुण में ही लगते हो और सूक्ष्म सगुण की उपासना में नहीं बढ़ते हो तो तुम्हारी शक्ति आगे बढ़ेगी कैसे? ऐसा मानने से ही ईश्वर का पूरा दर्शन हो गया, इसको सिद्ध करना चाहिए। सगुण रूप दर्शन करने से विकार दूर नहीं होता। श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिवजी, देवी आदि के दर्शन से हृदय शुद्ध नहीं होता। शुम्भ-निशुम्भ ने देवी से युद्ध किया। देवी-दर्शन होने पर भी हृदय शुद्ध क्यों नहीं हुआ? इससे जाना जाता है कि इस स्थूल दर्शन से विचार की शुद्धता नहीं होती, माया में भले ही लाभ हो जाय। ईश्वर-दर्शन इस आँख से नहीं होता। इस आँख से जो देखोगे, वह माया है। ईश्वर को अपने से-चेतन आत्मा से जानोगे। शरीर और इन्द्रियों के साथ अपूर्ण ज्ञान होता है। शरीर-इन्द्रियों से छूटने पर ज्ञान होता है कि ‘पूर्ण में से पूर्ण निकलता है और पूर्ण ही बचता है।’ स्थूल सगुण उपासना के बाद सूक्ष्म सगुण-साकार की उपासना करनी चाहिए। मन से सूक्ष्म सगुण-साकार बनाया नहीं जा सकता। गुरु-युक्ति से इसकी साधाना होती है। आगे चलकर सगुण अरूप की उपासना होती है, यहीं है ऋषि-मुनियों का नादानुसंधाान। फि़र है निर्गुण-निराकार उपासना। स्थूल सगुण से लेकर निर्गुण-निराकार तक इसी तरह पहुँचा जाता है। (189- सगुण-निर्गुण की महिमा)
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जो पुराने सत्संगी हैं वा जो अभी नए सत्संग करते हैं, सबको मालूम है कि ध्यान में बाहरी चीज का अवलम्ब तो केवल नाम मात्र है, जैसे कुछ जप करना और मानस ध्यान करना। लेकिन इस अल्प का भी अनादर नहीं करना चाहिए। जब स्थूल में मन को नहीं लगा सकते हैं तो सूक्ष्म में मन को कैसे लगा सकते हैं? इसलिए मानस जप और मानस ध्यान को भी मुस्तैदी से करना चाहिए। इसके बाद दृष्टियोग और शब्दयोग का साधान है। दृष्टियोग से ज्योति में प्रवेश होता है। फि़र नाद का ध्यान होता है। यही असली नाम-भजन है। बहुत लोगों को धवन्यात्मक नाम-भजन की खबर भी नहीं है। बहुत लोग नहीं जानते कि अंतर का नाद ईश्वर का नाम है। ( प्रवचन अंश : ध्यानाभ्यास में लौ लगाने से तरक्की )

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मानस जप और मानस ध्यान से स्थूल में एकाग्रता होती है। जप में भी उत्तम जप वह है, जो जपते हैं, केवल वही ख्याल रहे।
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मानस जप में मुँह से उच्चारण नहीं होता है, मन से ही मंत्रवृत्ति होती रहती है। ( प्रवचन अंश : परम पद से कभी गिरते नहीं )
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जो कोई घोर निद्रा में सोया हुआ होता है, उसे पुकारा जाता है उठाने के लिए। पुकार से नहीं उठने पर शरीर को पकड़कर हिलाते हैं। शब्द कहकर जगाना सूक्ष्म है, देह पकड़कर हिलाना स्थूल है। मानस जप और मानस ध्यान स्थूल साधन हैं। इन दोनों सीढ़ियों पर स्थिर होकर आप अपनी परीक्षा आप करें कि कितनी देर तक उन्हें एकाग्र मन से आप करते हैं? मैं तो कहता हूँ कि दो मिनट भी ऐसा जप करें कि जप है और आप हैं, तो मैं कहूँगा कि बहुत अच्छा करते हैं।
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मानस जप पूरी एकाग्रता के साथ किया जाता है। जप के समय आनेवाले तरह-तरह के चिन्तनों या गुनावनों को हटाकर बारम्बार जप के शब्दों में मन को संलग्न करना पड़ता है। जब मन जप के शब्दों को छोड़कर अन्य गुनावनों में नहीं लगे, तब समझना चाहिए कि जप अच्छी तरह हो रहा है। पहले मन को हठपूर्वक जप के शब्दों में लगाना पड़ता है; परन्तु जब जप का पूरा अभ्यास हो जाता है, तब बिना प्रयास के ही स्वतः मानस जप निरन्तर होता रहता है। यह जप की सिद्धि का लक्षण है। ऐसा होना असंभव नहीं माना जाना चाहिए। जैसे किसी माता को अपने खोये हुए बच्चे की चिन्ता सतत सताती रहती है, वैसे ही जप सिद्ध हो जाने पर वह सदैव बिना प्रयास के ही अनवरत रूप से होता रह सकता है।
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किसी एक ओर मन को लगाना सामान्यतः ध्यान कहलाता है। जप में मन को मंत्र के शब्दों में एकाग्र किया जाता है, इसलिए जप भी एक प्रकार का ध्यान ही है।
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जप सगुण-उपासना की प्रथम सीढ़ी है।
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एक मन से मंत्र जपो। कोई ऐसा कहे मेरा मंत्र अच्छा है, उसका अच्छा नहीं, यह सुनकर भूलिए नहीं। एक मंत्र को जपिए, जिसका अर्थ ईश्वर-संबंधी हो। स्थूल जप जपिए। सब शब्द छूटकर एक शब्द रहेगा। अन्य विषयों को छोड़कर केवल शब्द में लगे रहो। फि़र लोग ध्यान करने बतलाते हैं। (प्रवचन अंश : पंडितों का वेद संतों का भेद)
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जप-वाचिक जप, उपांशु जप और मानस जप ; तीन प्रकार के होते हैं। वाचिक जप बोलकर किया जाता है, उपांशु जप में होठ हिलते हैं, पर दूसरे उसे नहीं सुनते हैं और मानस जप मन-ही-मन होता है। इसमें होेंठ-जीभ आदि नहीं हिलते। अन्तर में प्रवेश करने के लिए पहले मानस जप कीजिए। वैसा नाम जिसका अर्थ ईश्वर संबंधाी है, उस नाम को जपिए, मानस जप के बाद मानस ध्यान कीजिए।
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अंतर की ज्योति ठीक-ठीक ग्रहण करने के लिए पहले जप करें, फि़र ध्यान। जप अन्धकार में करता है, ठहरना भी अन्धकार में है।
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जप की संख्या पुराने की कोई आवश्यकता नहीं है। माला पर एक लाख जप कर लिया, लेकिन एकाग्र मन से कितनी बार? एकाग्रतापूर्वक जितनी बार जप हो, वही श्रेष्ठ है। जप तीन प्रकार के होते हैं-वाचिक, उपांशु और मानस। वाचिक जप वह है, जो कि आवाज के द्वारा जपा जाय। उपांशु जप वह है जो अपने मुँह के अंदर ही बोलकर जपा जाय, इसमें होंठ तो हिले, पर आवाज कोई दूसरा व्यक्ति न सुन सके। मानस जप वह है जो केवल मन-ही-मन किया जाय, जो अपनी कान भी न सुन सके। मानस जप सब जपों का राजा है। मुँह से भी जपो, कोई हानि नहीं, लेकिन जप के प्रकारों में मानस जप सर्वश्रेष्ठ है। इस शरीर में मन कहाँ रहता है? शरीर में मन जहाँ रहता है, उसी स्थान पर उसे रहने देकर, जप करना श्रेष्ठ है। ( प्रवचन अंश : चेतन की धाारा ब्रह्माण्ड से पिण्ड की ओर )

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