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दृष्टियोग

दृष्टियोग

जो दृष्टियोग करता है, वह ईश्वर के इस रूप का धयान करता है। इसका मानस ध्यान नहीं होता। केवल देखो, आप ही उदय होगा। किसी रूप का चिन्तन मत करो। सब आकार-प्रकारों का ख्याल छोड़कर होेश में रहकर देखने के यत्न से देखो, उदय होगा। जब हमारे ख्याल से, सब रंग-रूप छूट जायँ, वचन बोलने की सब बातें चली जायँ, तब परमात्मा बच जाएगा। इसका बहुत अच्छा अभ्यास होना चाहिए। यह छठी भक्ति है। यह हुआ दम। मन-इन्द्रियाें के संग-संग के साधान को दम कहते हैं। ‘शम’ कहते हैं मनोनिग्रह को। ‘शम’ और ‘सम’-दोनों में बड़ा मेल है। ‘शम’ के बिना ‘सम’ (समता) हो नहीं सकता। (प्रवचन अंश : तन काम में मन राम में)
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दृष्टि शरीर का प्राण है। (प्रवचन अंश : अमृत को नत्रें से पान करो)
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आपके दोनों हाथों को पकड़कर कोई खींचे, तो तमाम शरीर उसी ओर खींचा जाएगा। उसी प्रकार दोनों दृष्टि की धाारें जिधार खींची जाएँगी, संपूर्ण शरीर की धाार उस ओर फि़र जाएगी। (प्रवचन अंश : अमृत को नत्रों से पान करो)
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जैसा विन्दु बाहर में स्थापित करते हो, वस्तुतः विन्दु वैसा नहीं होता। इसके लिए संताें ने कहा-आँखें बन्द करते हो, वही कागज के सामने देखने में आता है। अन्धकार-ही-अन्धाकार नजर आता है। पेन्सिल रखो, ख्याल मत करो कि वहाँ क्या होगा? पेन्सिल रखते ही चिõ होता है, उसी प्रकार दृष्टि की नोक जहाँ स्थिर होगी, वहीं कुछ उदित हो जाएगा। इस प्रकार कुछ ख्याल किए बिना दृष्टि को स्थिर करो, अपने ही आप उदित होगा। निराशा देवी की गोद में मत जाओं नाउम्मीदी की गोद में मत बैठो। जो नाउम्मीदी की गोद में बैठते हैं, उनसे होनवाला काम भी नहीं होता है। (प्रवचन अंश : घर माहैं घर निर्मल राखै)
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स्थूल मण्डल में जहाँ तक स्थान है, वहाँ तक लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई और मोटाई होती है। स्थान हो और इन पाँचो में से एक भी नहीं हो, असम्भव है। स्थान में ये पाँचो होते ही हैं। इसलिये लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई और मोटाई जहाँ है, वहाँ स्थान है। विन्दु में स्थान है, किन्तु उसका परिमाण नहीं है। रेखा में लम्बाई है, चौड़ाई नहीं; किन्तु परिभाषा के अनुकूल बाहर में विन्दु या लकीर नहीं बन सकती। दृष्टिसाधान से विन्दु देखने में आता है। जहाँ स्थान है, वहाँ समय है। देश है, समय नहीं और समय है, देश नहीं; ऐसा नहीं हो सकता। जहाँ देश-काल नहीं है, वहाँ लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई और गहराई कुछ नहीं है। परमात्मा देशकालातीत है तथा सर्वव्यापी है। समय और स्थान माया में है, माया से ऊपर समय और स्थान नहीं हो सकते। परमात्मा में लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई, गहराई और ऊँचाई मानने से वह माया-रूप हो जायगा। जिसमें विस्तृतत्व या फ़ैलाव नहीं है, वह कैसा है ? बुद्धि में नहीं आ सकता। इसलिये वह बुद्धि के परे है। परमात्मा निर्विकार है। वह विस्तृतत्व-रूप नहीं है। सब फ़ैलावों में रहते हुए वह उन सबसे बचकर है। (प्रवचन अंश : दृष्टिसाधान की महिमा)
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जिसे परम विन्दु कहा गया है, उसे पेन्सिल से नहीं लिख सकते। हाँ, दृष्टि की पेन्सिल से लिख सकते हैं। जहाँ दृष्टि का पसार खतम हो जाएगा, उसकी धारा का जहाँ अटकाव हो जाएगा, वहीं परमात्मा का अणोरणीयाम् रूप उदय हो जाएगा। जबतक यह नहीं होता है, तबतक मन को सँभालने में बड़ी कठिनाई मालूम होती है। दृष्टि सँभालकर रखनी चाहिए, तब ज्योतिर्विन्दु का उदय होगा, ऐसा धयान करो। यह सूक्ष्म रूप-धयान हुआ। इतना ही नहीं, उसके बाद रूपातीत धयान अर्थात् नाद-धयान करना होगा। (प्रवचन अंश : जहाँ रहो, सत्संग करो)
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विन्दु में जो अपने मन को समेटता है, दृष्टि को समेटकर देखता है, तो उसमें शक्ति आ जाती है। फ़ैलाव में शक्ति घटती है, सिमटाव में शक्ति बढ़ती है। जिसकी दृष्टि सिमट गई है, उसकी शक्ति बढ़ जाती है। रूप या दृश्य का बनना बिना विन्दु के नहीं होता। इसलिए सब दृश्य का बीज विन्दु है। किसी आकार और दृश्य का आरम्भ एक विन्दु से होता है और उसका अंत एक विन्दु पर ही होता है। (प्रवचन अंश : आत्मा को जानना सच्चा ज्ञान है)
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दृष्टि वह चीज है, जहाँ पर यह ठीक से लगी रहती है, मन वहीं पर पड़ा रहता है। ऐसा नहीं होगा कि दृष्टि को एक जगह स्थिर किए हैं और मन दूसरी ओर भाग जाय। यदि ठीक-ठीक देखते हैं तो मन वहीं रहता है। दृष्टि डीम-पुतली को नहीं कहते, देखने की शक्ति को कहते हैं। दृष्टि स्थूल है या सूक्ष्म? दृष्टि को हाथ से आप नहीं पकड़ सकते। आप मेरी ओर देखते हैं और मैं आपकी ओर देखता हूँ, तो दोनों की दृष्टि दोनों पर पड़ती है, किन्तु उसे देख नहीं सकते। इस प्रकार दृष्टि सूक्ष्म है और मन भी सूक्ष्म है। सूक्ष्म को सूक्ष्म का सहारा मिलना अवश्य मानने योग्य है। इसलिए दृष्टि से मन का स्थिर होना पूर्ण सम्भव है। दृष्टि और मन दोनों सूक्ष्म है, इसलिए उपनिषद् का यह वाक्य सत्य है, ऐसा विचार में जँचता है। बाकी रही बात वायु-स्थिरता की। तो आप देखिए, किसी गम्भीर बात को सोचिए, तो मन इधार-उधार नहीं भागता। ऐसी अवस्था में श्वास-प्रश्वास की गति भी धाीमी पड़ती है। आप स्वयं आजमाकर देख सकते हैं। (प्रवचन अंश : अमृत को नत्रें से पान करो)
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विचार से देखिए-जहाँ आपकी दृष्टि गड़ी रहेगी, मन वहीं रहेगा। मन सूक्ष्म है और दृष्टि भी सूक्ष्म है। इसलिए स्वजाति को स्वजाति से मदद मिलती है। (प्रवचन अंश : अमृत को नत्रें से पान करो)
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  मन को ठीक-ठीक लगाओ, दृष्टि को ठीक-ठीक लगाओ, जैसा बताया गया है। अवश्य शांति मिलेगी। मेरे कहने का तात्पर्य ऐसा नहीं कि प्राणायाम नहीं करो। जिनसे निबहता है, करें( किन्तु खतरे से-आपदा से बचते रहें। बिना प्रत्याहार के धाारणा नहीं होगी। बिना धाारणा के धयान नहीं होगा। इसलिए पहले प्रत्याहार होगा। मन जहाँ जहाँ भागेगा, वहाँ-वहाँ से लौटा-लौटाकर फि़र वही लगाया जाएगा, तो अल्प टिकाव अवश्य होगा। (प्रवचन अंश :अमृत को नत्रें से पान करो)
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फि़र दूसरे अध्याय में जाने से स्थूल रूप और स्थूल शब्द छूट जाता है। किंतु ऐसा नहीं समझिए कि इष्ट छूट गए। इष्टदेव का सूक्ष्म रूप रह गया। इसको मोटी आँख से नहीं, सूक्ष्म आँख से देखेंगे। वहाँ स्थूल कान भी नहीं। जहाँ स्थूल आँख है, वहीं स्थूल कान है। उसी प्रकार जहाँ सूक्ष्म दृष्टि है, वहीं सूक्ष्म श्रवण भी है, तब स्थूल रूप, नाम को नहीं देख सकेंगे। सूक्ष्म दृष्टि और सूक्ष्म श्रवण से सूक्ष्म रूप और सूक्ष्म शब्द को सुनोगे। (प्रवचन अंश : पंडितों का वेद संतों का भेद)
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केवल विचार से दृश्यमण्डल को पार नहीं कर सकता। इसीलिए दृश्यमण्डल से पार होकर जहाँ तक सीमा है, वहाँ तक आप जाइएगा। पहले ज्योति होकर गुजरना होगा, तब अदृश्य में जाइएगा। यह पहला पाठ है कि ज्योति की खोज करो। जो ज्योति की खोज नहीं करता, वह अदृश्य में नहीं जा सकता। अपने अंदर की ज्योति कोई कैसे खोज करे-अंतर में प्रवेशकर या बाहर फ़ैलकर? अंतर्मुखी होने से ही उस प्रकाश को देख सकेंगे। (प्रवचन अंश : शास्त्रें को मथने से क्या फ़ल?)
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आँख बंदकर देखना अमादृष्टि है, आधाी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा है और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा है। उसका लक्ष्य नासाग्र होना चाहिए। प्रतिपदा और पूर्णिमा में आँखाें में कष्ट होता है, किन्तु अमावस्या की दृष्टि में कोई कष्ट नहीं होता। दृष्टि-आँख, डीम और पुतली को नहीं कहते, देखने की शक्ति को दृष्टि कहते हैं। दृष्टि और मन एकओर रखते हैं, तो मस्तिष्क में कुछ परिश्रम मालूम होता है। इसलिए संतों ने कहा-जबतक तुमको भार मालूम नहीं हो, तबतक करो, भार मालूम हो तो छोड़ दो। किसी गम्भीर विषय को सोचने से मस्तिष्क पर बल पड़ता है, मस्तिष्क थका-सा मालूम होता है, तब छोड़ दीजिए। रेचक, पूरक और कुम्भक के लिए कुछ कहा नहीं गया है, केवल दृष्टिसाधान करने को कहा। प्राणायाम करने के लिए नहीं कहा। जो ध्यानाभ्यास करता है, उसको प्राणायाम आप-ही-आप हो जाता है। मन से जब आप चंचल काम करते हैं, तो स्वाँस की गति तीव्र हो जाती है और जब उससे कोई अचंचलता का काम करते हैं, तो स्वास-प्रस्वास की गति धाीमी पड़ जाती है।(प्रवचन अंश : सूक्ष्म मार्ग का अवलम्ब)
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जो जिस मण्डल में रहता है, वह पहले उसी मण्डल का अवलम्ब ले सकता है। इसीलिए दृष्टियोग केे पहले मानस जप और मानस ध्यान की विधि है। (प्रवचन अंश : सूक्ष्म मार्ग का अवलम्ब)

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