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जीवन-मुक्ति

जीवन-मुक्ति

* शब्दयोग के बिना परमपद या मोक्ष पाना असम्भव है।

* मुक्ति जीवात्मा की होगी, जब यह अकेले होकर रहे, जब केवल अपने आप ही रहे। जहाँ इन्द्रियाँ नहीं हैं, वहीं आत्मस्वरूप की प्राप्ति होती है, जो निर्विषय है, इसी में नित्यानन्द है। इसी के लिये मोक्ष का प्रयोजन है। शरीर छूटने पर मुक्ति होगी, ऐसा नहीं। पहले जीवन-मुक्ति होगी, पीछे विदेह-मुक्ति। -सत्सङ्ग-सुधा, प्रथम भाग 

* शरीर और संसार का बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है। ये दोनों ही बन्धन हैं। इनसे पार हो जाना ही मोक्ष है। शरीर और संसार दोनों के पाँच प्राकृतिक मण्डल हैं। स्थूल मण्डल के ऊपर सूक्ष्म, सूक्ष्म मण्डल के ऊपर कारण, कारण मण्डल के ऊपर महाकारण और महाकारण मंडल के ऊपर कैवल्य मण्डल हैं। इनमें से प्रथम के चारों अपरा प्रकृति के मण्डल हैं। शेष पिछला कैवल्य मण्डल परा प्रकृति का मण्डल है। जब आप शरीर के स्थूल स्तर पर निवास करते हैं, तब इस विशाल संसार के स्थूल स्तर पर ही आप रहते हैं। जब आप शरीर के इस दर्जे को छोड़ देते हैं, तब संसार का भी यह स्थूल मण्डल आप परित्याग कर देते हैं। इस भाँति चलते-चलते जब आप शरीर के सभी मण्डलों को पार कर जाते हैं, तो संसार के सभी मण्डलों से भी आप ऊपर उठ जाते हैं।
 सद्गुरु की बताई युक्ति से चल कर आप सभी मण्डलों से ऊपर उठ जाइये और परम प्रभु परमात्मा में लीन होकर, मोक्ष प्राप्त कर लीजिये।
-महर्षि मेँहीँ-अभिनन्दन-ग्रन्थ

* संतमत नया मत नहीं है। रामचरितमानस में लिखा है-
        “यहाँ न पच्छपात कछु रखौं। वेद पुरान सन्तमत भाखौं ।।”
सन्त सङ्ग अपवर्ग कर, कामी भव कर पन्थ ।
कहहिं सन्त कवि कोविद, स्त्रुति पुराण सद्ग्रन्थ ।।
 सन्तमत, यह गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है सन्तों के विचार का नाम है और मोक्ष पाने के लिये सन्तों का सङ्ग या सत्सङ्ग करना परमावश्यक है। सन्तमत मोक्ष-धर्म सिखलाता है और इस मत में सत्सङ्ग प्रधान है। सामूहिक सत्सङ्ग ज्ञान का अङ्ग है और परमात्मा का ध्यान करना आन्तरिक सत्सङ्ग या योग है। ज्ञान और योग दोनों मिलाकर भक्ति पूरी होती है।
-महर्षि मेँहीँ अभिनन्दन ग्रन्थ

* सन्तों का मार्ग मोक्ष में पहुँचाने का है। उनका मार्ग संसार-सागर को पार करने के लिये, संसार के सारे बन्धनों से छूट जाने के लिये है। उन्होंने ऐसा नहीं कहा कि वर्ण-भेद से, जाति-भेद से या देश-भेद से कोई उसके योग्य है या कोई इसके योग्य नहीं है; किन्तु हाँ, आचरण-भेद से योग्य वा अयोग्य अवश्य है।
 गुरु महाराज कहते थे- “जिसको भजन करने के लिये दो घण्टे की भी फुर्सत न हो, उसे भजन-अभ्यास मत बताओ।” संसार में उत्तम ढंग से बरतो। जो कोई उत्तम ढंग से बरतते हैं, वे चाहें नर हों वा नारी, आनन्द-ही-आनन्द में रहेंगे।
 “कहै कबीर निज रहनी सम्हारी । सदा आनन्द रहे नर-नारी ।।”
 संसार में रहने का अच्छा ढंग है- “व्यभिचार, चोरी, नशा, हिंसा और झूठ-इन पाँच पापों को त्याग कर रहो।
 इस तरह संसार में बरतने से संसार तथा परलोक, दोनों में आनन्द से रहोगे। परलोक कहने का तात्पर्य केवल स्वर्ग वैकुण्ठादि ही नहीं, बल्कि मोक्ष-धाम तक से है।
-सत्सङ्ग-सुधा, प्रथम भाग

* बिना योग के परमात्म-स्वरूप का ज्ञान नहीं होता और बिना ज्ञान के मोक्ष नहीं। -शान्ति-सन्देश, जनवरी, 1969


* गोस्वामी जी के हृदय में राम-नाम के वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक; दोनों रूपों में पूर्ण श्रद्धा-भक्ति है। मेरे जानते नाम के दोनों रूपों का भजन करना परम आवश्यक है और न मोक्ष-लाभ हो सकता है। पर इतना जान लेना आवश्यक है कि वर्णात्मक नाम का भजन प्रारम्भिक साधन है और ध्वन्यात्मक नाम का भजन अंतिम साधन है। 



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