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संक्षिप्त जीवन-दर्शन:
पूज्यपाद संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज का जन्म विक्रमीय संवत् 1979, ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष प्रतिपदा, शनिवार तदनुसार सन् 1922 ई0 के जून माह में उत्तरप्रदेश के देवरिया मंडलान्तर्गत छोटी गंडक के तट पर शोभायमान नौतन नामक ग्राम में हुआ है। आपके धर्मप्राण पिताश्री विशेन क्षत्रिय कुलभूषण बाबू श्रीतिलक धारी शाहीजी थे और धर्मपरायणा एवं करुणामयी माता श्रीमती सुखराजी देवी थीं। आपका राशि का नाम श्री बुद्धिसागर शाही है। आप चार भाई हैं, बहन एक भी नहीं। भाइयों में बड़े होने के कारण सब लोग आपको आदरपूर्वक ‘बड़कन बाबू’ कहकर संबोधित करते थे।
आपकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव के ही विद्यालय में हुई। आपका विद्यालय का नाम श्रीअवधकिशोर शाही था। मनमौजी प्रकृति होने के कारण आप मात्र चौथी कक्षा तक ही पढ़ पाये। आपको गणित और भूगोल में विशेष अभिरुचि थी। हिन्दी भाषा के अतिरिक्त आपने फारसी भी सीखी थी। बचपन से ही धर्म की ओर आपकी विशेष प्रवृत्ति थी। इसी संस्कारवश आप ‘श्रीहनुमान चालीसा’ और ‘श्रीदुर्गा-चालीसा’ का बड़ी ही तन्मयता के साथ पाठ किया करते थे। यह देख आपके संबंध के दादा बाबू श्रीरघुनाथ शाहीजी आपको ‘पंडितजी’ कहा करते थे। आप पीपल वृक्ष की जड़ में तथा भगवान् सूर्यदेव को बड़ी ही श्रद्धा के साथ जल अर्पित करते थे। पढ़ाई छोड़ने के उपरांत आपका उपनयन संस्कार बड़ी ही धूमधाम के साथ आपके ननिहाल फूलपुर, जिला बस्ती में सम्पन्न हुआ।
धर्म की ओर आपकी बढ़ती प्रवृत्ति को देखकर आपके पिताजी आशंकित हो उठे और आपको गार्हस्थ्य-जीवन में बाँध देना चाहा। आप विवाह करने के पक्ष में बिल्कुल नहीं थे; लेकिन पिताजी की जिद्द के सामने आपकी एक न चली। सन् 1940 ई0 के लगभग गोरखपुर जिलान्तर्गत माड़ापार गाँव की एक कुलीन कन्या के साथ आपका विवाह सम्पन्न हुआ। विवाह के चार साल बाद आपको एक पुत्र हुआ, जिसका नाम ‘श्रीश्यामनारायण शाही’ है, जो सकरोहर (खगड़िया) में रहते हैं। इनके अतिरिक्त आपको कोई संतान नहीं हुई।
आप अपने पूर्व संस्कारवश आध्यात्मिक अंतःप्रेरणा से प्रेरित हो रहे थे। परिवार में रहना आपको अच्छा नहीं लगता था। अक्टूबर, 1941 ई0 में अपने फूफा श्रीभगवती प्रसाद सिंहजी के आग्रह पर उनकी जमींदारी की देख- रेख करने के लिए आप सकरोहर आ गये। अगस्त, 1942 ई0 में आप पुनः नौतन आ गये। संत कबीर साहब की तरह कपड़ा बुनकर स्वावलंबी जीवन व्यतीत करने की बात आपने सोची और हाटा सबडिविजन के अंतर्गत समांगी पट्टी में कुछ ही दिनों में हस्तकरघा चलाने में आप निपुण हो गये। अपने बुने कपड़े आप गरीबों को दान भी करते थे।
आप अंदर से शांतिस्वरूप परमात्मा की खोज के लिए व्याकुल थे। आप ऐसे सच्चे संत सद्गुरु की खोज कर रहे थे, जो आपकी आध्यात्मिक प्यास को बुझा सके। वैराग्य की उठती तरंग सांसारिक बंधनों को तोड़ डालना चाह रही थी। इसी क्रम में सन् 1944 ई0 के आस-पास श्रीभगवती बाबू का देहान्त हो गया। उनके परिवार के विशेष आग्रह एवं अपने पिताजी की आज्ञा से आप पुनः सकरोहर आ गये। सन् 1945 ई0 में आपने महेशखूँट स्टेशन पर लोगों की भीड़ देखी, पता लगा कि ये सत्संगी लोग हैं, जो पनसलवा से संतमत-सत्संग के वार्षिक महाधिवेशन से लौट रहे हैं, जहाँ पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज पधारे हुए हैं। सत्संग-प्रेमियों के मुख से संतमत-विषयक चर्चाएँ एवं महर्षिजी के गुण-गान सुनकर आपके अंदर यह अटल विश्वास हो रहा था कि महर्षिजी पहुँचे हुए महापुरुष हैं। विश्वास के साथ ही महर्षिजी के दर्शन की इच्छा आपमें तीव्रतम हो उठी, फिर तो आप ऐसे सहयोगी की तलाश में थे, जो आपको परम पुरुष महर्षिजी के श्रीचरणों में पहुँचा दें।
चाह को राह मिल ही जाती है। संयोगवश सत्संगी श्री जगरूप दासजी से आपकी मुलाकात हुई। इनके साथ आप पूज्यपाद श्रीरामलगन बाबा सहित परबत्ती आश्रम (भागलपुर) पहुँचे। आश्रम-परिवेश में घुसते ही आपकी खुशी का ठिकाना न रहा। आश्रम-प्रांगण में कुर्सी पर विराजमान अलौकिक व्यक्तित्व के अवतार, त्रय तापों से संतप्त जीवात्मा के उद्धारकर्त्ता महर्षिजी के परम पावन युगल चरणों में जब आप अपना मस्तक टेक रहे थे, तब आप अपने भाग्य पर फूले नहीं समा रहे थे। वह क्षण आपके जीवन का सबसे ज्यादा खुशी का क्षण था।
नाम-पता पूछने के बाद महर्षिजी ने आपके आने का उद्देश्य जानना चाहा, तो एकाएक आप कह उठे कि गुरुमुख होने आया हूँ। महर्षिजी ने कहा कि मैं पहले देख लूँगा कि आप भजन-ध्यान करेंगे, तब दीक्षा दूँगा। आप तन-मन से सेवा करते हुए आश्रम में रहने लगे। सातवें दिन यानी 23 फरवरी, सन् 1946 ई0 को महर्षिजी के आदेशानुसार स्नान करके और फूलमाला बनाकर आप भजन-भेद लेने के लिए तैयार हो गये। महर्षिजी ने मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टियोग की दीक्षा आपको दी। आपके साथ ही पूज्यपाद श्रीरामलगन बाबा भी दीक्षित हुए।
आप पूरी श्रद्धा और निष्ठापूर्वक साधन-भजन करने लगे। इस कारण श्रीवैद्यनाथ बाबू (स्व0 श्रीभगवती बाबू के सुपुत्र) के कामों से उदासीन हो गये। उनके हृदय में आपके प्रति पूज्य भावना थी। वे आपको ‘साधु बाबा’ कहकर पुकारा करते थे। आपने अपनी साधुता एवं उदारता का परिचय देते हुए उनसे कभी कुछ भी पारिश्रमिक के रूप में नहीं लिया। उनसे गरीबों, दीन- दुःखियों को प्रायः मदद करवाते ही रहते थे। आपके शील-स्वभाव, परोपकारिता एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार से क्षेत्र के सब लोग प्रसन्न रहते हुए आपको आदरपूर्वक ‘बड़कन बाबू’ कहा करते थे। आप सामाजिक नीति के कुशल महारथी हैं। लोगों के आग्रह पर कुछ दिनों तक अस्थायी मुखिया भी बने। बाद को अंत तक सरपंच भी बने रहे।
सन् 1956 ई0 में साधन-भजन को ध्यान में रखते हुए आपने अपने लिए अलग फूस की एक कुटिया बनायी। निजी रुपये से पाँच बीघे जमीन भी खरीदी। उस कु
महर्षि मेँहीँ ध्यान - ज्ञान सेवा ट्रस्ट हरिद्वार
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