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भारतवर्ष के बिहार राज्यान्तर्गत भागलपुर नगर के पतित-पावनी सुरसरि के तट पर अवस्थित कुप्पाघाट में एक शान्त सुपावन आश्रम-परिसर के बीच एक प्राचीन गुफा है। उसी गुफा में सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने कठिन तपस्या करके दिव्य ज्ञान प्राप्त किया था।
महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का अवतरण इस धराधाम पर विक्रमी संवत् 1942 के वैशाख शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि तदनुसार 28 अप्रैल, 1885 ई0, मंगलवार को अपने मातामह के यहाँ खोखशी श्याम (मझुवा) ग्राम में हुआ था। यह ग्राम सहरसा जिले (अब मधेपुरा जिले) के उदाकिशुनगंज थानान्तर्गत पड़ता है। आपके नाना का नाम श्रीविद्यानाथ दास था।
आपका पितृगृह पूर्णियाँ जिले के बनमनखी थानान्तर्गत सिकलीगढ़ धरहरा में पड़ता है।
आपके पूज्य पिता मैथिल कर्ण कायस्थ कुलभूषण बाबू श्रीबबूजनलाल दासजी थे एवं माता जनकवती देवी थी। आपके जन्मराशि पर का नाम रामानुग्रहलाल दास था। आपके चाचा पूज्य श्रीभरतलाल दासजी ने प्यार से आपका नाम ‘मेँहीँ लाल’ रखा। आप जन्मजात योगी थे। जन्म-धारण के समय से ही आपके सिर पर सात जटाएँ थीं, जो प्रतिदिन कंघी से सुलझा दिए जाने पर भी पुनः उलझ जाती थीं। जब आप चार वर्ष के थे, उसी समय आपकी पूजनीया माताजी इस संसार को छोड़कर परलोकगामिनी हो गईं।
आपकी प्राथमिक शिक्षा का शुभारम्भ अपने ही ग्राम के विद्यालय में हुआ था। प्रवेशिका की शिक्षा आप पुरैनियाँ जिला स्कूल से प्राप्त कर रहे थे। आपकी अभिरुचि सुख-सागर, रामचरितमानस, महाभारत आदि धर्मग्रंथों की ओर बहुत अधिक थी। 4 जुलाई, 1904 ई0 को आप प्रवेशिका परीक्षा दे रहे थे। उस दिन अंग्रेजी की परीक्षा थी। उसमें एक प्रश्न आया था-"Quote from your memory the poem 'Builders' and explain it in your own English."
अर्थात् ‘निर्माणकर्त्ता’ शीर्षक पद्य को अपने स्मरण से लिखकर उसकी व्याख्या करो।
‘निर्माणकर्त्ता’ शीर्षक कविता की चार पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
'For the structure that we raise
Time is with material's field.
Our to-days and yesterday
Are the blocks with which we build.'
इन चार पंक्तियों की आपने जो व्याख्या की, उसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है-
‘हमलोगों का जीवन-मंदिर अपने प्रतिदिन के सुकर्म वा कुकर्मरूपी ईंटों से बनता वा बिगड़ता है। जो जैसा कर्म करता है, उसका वैसा ही जीवन बनता है। इसलिए हमलोगों को भगवद्भजनरूपी सर्वश्रेष्ठ ईंटों से अपने जीवन-मंदिर की दीवाल का निर्माण करते जाना चाहिए।’
व्याख्या करते-करते आपमें वैराग्य तीव्रतम हो गया और आपने रामचरितमानस की यह पंक्ति-‘देह धरे कर यहि फल भाई। भजिय राम सब काम बिहाई।।’ लिखकर उत्तर- पुस्तिका निरीक्षक को सुपुर्द कर दी और उत्कट आध्यात्मिक अन्तःप्रेरणा से प्रेरित होकर साधु-संतों की खोज में निकल गये। कितने पहाड़ों, गुफाओं, मंदिरों और तीर्थस्थलों में भ्रमण किया। कितने दिनों तक भूखे रहे। इसी क्रम में आप एक दरियापंथी साधु जोतरामराय निवासी श्रीरामानन्द स्वामी से दीक्षित हुए। उन्होंने मानस जप, मानस ध्यान और खुल नेत्र से किये जानेवाले त्रटक की क्रिया बतलायी। आपने वर्षों तक इसका अभ्यास किया; लेकिन आत्म-ज्ञान की पूर्णता की पिपासा बनी ही रही। अपनी आशा की पूर्ति नहीं होते देख उसको छोड़ दिया और पुनः साधु-संतों की खोज-ढूँढ़ करने लगे। यह उचित भी था; क्योंकि अध्यात्म-पथ के पथिकों को कच्चे-अधूरे गुरु से पूरी मदद नहीं मिल सकती।
सन् 1909 ई0 में मुरादाबाद-निवासी सद्गुरु बाबा देवी साहब के पत्र-आदेश पर उनके ही शिष्य भागलपुर के मायागंज महल्ले के निवासी श्रीराजेन्द्रनाथ सिंहजी ने आपको दृष्टियोग की दीक्षा दी। उसी वर्ष भागलपुर में विजयादशमी के अवसर पर बाबा देवी साहब के प्रथम दर्शन आपको हुए। श्रीराजेन्द्रनाथ सिंहजी ने आपका हाथ बाबा देवी साहब के हाथ में थमाते हुए कहा कि ये ही आपके सद्गुरु हुए।
बाबा देवी साहब का प्रवचन सुनकर एवं उनके अलौकिक व्यक्तित्व को देखकर आपको बड़ी शांति मिली और आप उनके शरणागत हो गये। 1914 ई0 को पूज्य बाबा देवी साहब ने आपको नादानुसंधान (सुरत-शब्द-योग) की क्रिया बतला दी। आप उस साधना-विधि को करने लगे। आप अपने पितृगृह सिकलीगढ़ धरहरा से कुछ दूर पश्चिम और दक्षिण हटकर एक खेत में अपने से कुआँ खोदकर उसके अन्दर कठिन साधना करने लगे। कुएँ के अन्दर रहते-रहते आपका शरीर पीला हो गया। तब भक्तों ने कहा-‘महाराजजी! शरीर रहेगा, तब तो भक्ति होगी।’ उनलोगों की बात मानकर आपने कुएँ में अभ्यास करना छोड़ दिया; लेकिन साधना में पूर्ण सफलता न होते देख आपने व्यग्रतावश अनेक एकांत स्थानों की खोज की। अंत में भागलपुर के मायागंज महल्ले में पहुँचे। यहाँ की प्राचीन गुफा, एकान्त स्थान और गंगा का रमणीक दृश्य देखकर यह स्थान आपको बहुत अच्छा लगा। अतः आप इसी स्थान में अपनी साधना करने का विचार कर यहाँ निवास करने लगे और गुफा के अन्दर 18 महीनों तक कठिन तपस्या कर कैवल्य पद (संतपद) को प्राप्त कर विश्व में संतशिरोमणि महर्षि मेँहीँ परहंसजी महाराज के नाम से विख्यात हुए।
आपका जीवन सीधा-सादा था। आपका अंतरंग और बहिरंग अभिन्न था। करनी और कथनी में एक मेल था। आप अपने सिद्धांत के प्रति बड़े आस्थावान् थे। आपने गृहस्थ-जीवन से सुदूर रहकर ब्रह्मचर्यमय जीवन बिताया। संत चरणदासजी की वाणी में हमलोग पढ़ते हैं कि पिता से सौ गुणा अधिक माता प्यार करती है। माता से सौ गुणा अधिक प्यार हरि करते हैं और हरि से सौ गुणा अधिक प्यार
महर्षि मेँहीँ ध्यान - ज्ञान सेवा ट्रस्ट हरिद्वार
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