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परम संत बाबा देवी साहब

उत्तर प्रदेश के जिला अलीगढ़, तहसील हाथरस में श्रीमहेश्वरी लालजी कानूनगोई का काम करते थे । कहा जाता है कि श्रीमहेश्वरी लालजी की कई संतानें काल-कवलित हो चुकी थीं । इस कारण वे दुखी रहते थे । इनके परिवार के लोग हाथरस किले के पास रहनेवाले संत तुलसी साहब के भक्त थे । संत तुलसी साहब कभी-कभी इनके घर पधारने की कृपा करते थे ।

एक दिन संत तुलसी साहब का आगमन महेश्वरी लालजी के घर पर हुआ । श्री महेश्वरी लालजी को चिन्तित देख संत तुलसी साहब कहने लगे- श्श् संतान की चिन्ता मत करो । तेरे घर एक पवित्र आत्मा का जन्म होगा ।य्

कुछ काल के लिए संत तुलसी साहब हाथरस किले से बाहर सत्संग प्रचारार्थ चले गये । इधर मुंशी महेश्वरी लालजी को सन् ûøþû ईú के मार्च महीने में रविवार के दिन एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई । बालक का नाम देवी प्रसाद रखा गया । जब मुंशी महेश्वरी लालजी को ज्ञात हुआ कि परम संत तुलसी साहब हाथरस लौट आये हैं, तो वे तत्काल अपनी पत्नी और बच्चे के साथ उनकी कुटिया पर आशीर्वाद लेने पहुँच गये । संत तुलसी साहब ने प्रसन्नतापूर्वक अपना दाहिना हाथ बच्चे के सिर पर रखकर उसे आशीर्वाद दिया और बोले- श्श् इसे साधारण बालक न समझना ।य्

जब बालक देवी प्रसाद की अवस्था साढ़े छह वर्ष की हुई तो योग्य अध्यापक की देखरेख में उनकी शिक्षा का शुभारम्भ हुआ । वे तीक्ष्ण बुद्धि के थे । पढ़ाई-लिखाई के पाठ एवं सबक को यथाशीघ्र निबटाकर किसी गंभीर चितन में मग्न हो जाते ।

एक दिन इनके अध्यापक ने पूछा- श्श् तुम खाली बैठकर क्या सोचा करते हो ?य् उन्होंने सकुचाते हुए विनीत भाव से निवेदन किया- श्श् मेरे मन में यह बात आती रहती है कि इस संसार के रचयिता कौन हैं ? जीव कहाँ से आता है और कहाँ चला जाता है ?य् अध्यापक ईश्वर-संबंधी चर्चा को सुन गंभीर होते हुए बोले- श्श् अभी तुम्हें अपनी पढ़ाई-लिखाई पर विशेष ध्यान देना चाहिए ताकि आगे वह तुम्हारे काम आवे ।य्

एक बार आर्यसमाज के प्रवर्त्तक स्वामी दयानन्दजी सरस्वती भ्रमण करते हुए हाथरस पहुँचे । देवी साहब को साथ लेकर उनके चाचाजी स्वामीजी के दर्शनार्थ गये । चाचाजी देवी प्रसाद की जन्मपत्री भी साथ ले गये थे । यथोचित नमस्कार-बंदगी के पश्चात् उन्होंने जन्मपत्री स्वामीजी को देखने को दी । जन्मपत्री हाथ में लेते हुए स्वामीजी ने पूछा- श्श् इसका क्या करूँ ?य् देवी प्रसादजी ने कहा- श्श् आपसे अपना ग्रह जानने के लिए लाया हूँ ।य् स्वामीजी ने कहा- श्श् पहले यह बताओ कि तुम्हारी आस्था किस पर है ?य् देवी प्रसादजी ने कहा- श्श् एक परमेश्वर पर है ।य् स्वामीजी ने फिर पूछा- श्श् वह कैसा है, कहाँ रहता है और किस प्रकार प्राप्त होता है ?य् देवी प्रसादजी ने साधिकार कहा- श्श् स्वामीजी ! वह सबसे बड़ा और सबसे सूक्ष्म है, सबके अन्दर रहता है । उसकी प्राप्ति का मार्ग अपने अन्दर है, जो किसी ज्ञानी-गुरु के द्वारा प्राप्त होता है ।य् स्वामीजी ने पूछा- श्श् तुम देवालय जाकर ठाकुरजी की पूजा भी करते हो ? देवी प्रसाद ने उत्तर दिया- श्श् मनुष्य-शरीर सबसे श्रेष्ठ ठाकुरबाड़ी है, जिसमें परमपिता परमात्मा सहित सभी देव-देवियों का निवास है । इसे छोड़कर आप किस देवालय में जाने की बात पूछते हैं ?य्

बालक देवीप्रसाद के उत्तर को सुनकर स्वामीजी बड़े प्रसन्न हुए और जन्मपत्री लौटाते हुए बोले- श्श् बच्चा ! आनन्द से रहो, तुम्हारे सब ग्रह अच्छे हैं ।य्

देवीप्रसादजी की पूजनीया माताजी का देहावसान तब हुआ, जब वे चौदह वर्ष के थे । माता के वियोग की व्यथा से इनका मन पढ़ाई-लिखाई से ही नहीं, संसार से भी उचट गया । पिताजी आगे की शिक्षा जारी रखना चाहते थे । अतः समझा-बुझाकर इनका नामांकन एक अंग्रेजी स्कूल में कराया गया । उस स्कूल की शिक्षा समाप्त होते ही पिताजी भी उन्हें सदा के लिए छोड़कर परलोक सिधार गये । इन पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा । संसार की नश्वरता का बोध इन्हें घर-परिवार त्यागकर फकीरी जीवन व्यतीत करने को बाध्य करने लगा । परिवार के लोग इन्हें गृहस्थी के बंधन में बाँधना चाहते थे, लेकिन बाँध नहीं सके ।

देवी प्रसादजी के संबंधी भाई श्रीपद्यदासजी जो इनके प्रति विशेष स्नेह रखते थे तथा राधास्वामी मत के सत्संगी थे और आगरा के डाकघर में नौकरी करते थे । उन्हीं के स्नेहवश देवी साहब हाथरस से आगरा गये । वहाँ इनकी मुलाकात राधास्वामी मत के द्वितीय आचार्य रायबहादुर शालिग्राम साहबजी से हुई, जो पोस्टमास्टर जनरल के पद पर कार्यरत थे । श्रीपद्यदासजी ने उनसे देवी प्रसाद की एकान्त में साधु-जीवन व्यतीत करने की इच्छा बतलायी । राय साहब ने देवी प्रसाद से कहा- श्श् तुम यहीं रहकर सत्संग-भजन करो । इस समय भीख माँगकर साधु-जीवन बिताना कष्टकर है । लोग साधु को भार समझते हैं और श्रद्धापूर्वक भिक्षा नहीं देते हैं । जब तुम्हें भिक्षा की चिन्ता लगी रहेगी, तो साधन-भजन यथासमय कैसे कर सकोगे ? मैं पोस्ट ऑफिस में ही तुम्हारी नौकरी लगवा देता हूँ, जिससे तुम्हारा काम बन जाएगा ।य्

इस तरह समझा-बुझाकर ýú/- रुपये मासिक वेतन पर उन्होंने नौकरी लगवा दी । बाबा देवी साहब को काम के सिलसिले में कई शहरों, कस्बों में जाना पड़ता । सन् ûøøû ईú में इनकी बदली मुरादाबाद हो गयी । वहाँ के एक प्रेमी सज्जन के आवास पर आप रहने लगे । आपने वर्षों की नौकरी से अर्जित सम्पत्ति वंशीधरजी को सौंप दी । वंशीधरजी ने इस धन को व्यापार में लगा दिया और बाबा देवी साहब को ýú/- रुपये प्रति माह की स्थायी आय होने लगी । अब बाबा देवी साहब नौकरी से त्याग-पत्र देकर साधन-भजन में मस्त रहने लगे ।

बाबा देवी साहब का रहन-सहन और भोजन बहुत साधारण था । चाहे कोई भी मौसम हो, वे एक लम्बा काला कुर्ता पहना करते थे । साहू वंशीधरजी के शरीर-त्याग के बाद एक अन्य श्रद्धालु भक्त मुंशी बुलाकीदासजी अपनी कोठी

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